Friday, 29 May 2020

बोधकथा - अंतरात्मा की आवाज


⚜️बोधकथा - अंतरात्मा की आवाज⚜️

एक व्यक्ति कुछ पैसे निकलवाने के लिए बैंक गया। कैशियर ने पेमेंट किया... कस्टमर ने चुपचाप उसे अपने बैग में रखा और चल दिया। एक लाख चालीस हज़ार रुपए उसनें निकलवाए थे। 

कैशियर ने ग़लती से एक लाख चालीस हज़ार रुपए के बजाय एक लाख साठ हज़ार रुपए उसे दे दिए हैं... यह उसने देख लिया था... लेकिन उसने यह आभास कराते हुए कि उसने पैसे नहीं गिने है और कैशियर की ईमानदारी पर उसे पूरा भरोसा है, चुपचाप पैसे बेग मे रख लिए।

पैसे बैग में रखते ही अतिरिक्त बीस हजार रुपयों को लेकर उसके मन में उधेड़ -बुन शुरू हो गई। एक बार उसके मन में आया कि ज्यादा रकम वापस लौटा दे... लेकिन दूसरे ही पल उसने सोचा कि जब मैं ग़लती से किसी को अधिक पेमेंट कर देता हूँ, तो मुझे कौन लौटाने आता है.??

मन में बार-बार विचार आया कि, पैसे लौटा दे... लेकिन हर बार दिमाग पैसे ना लौटाने की कोई न कोई वजह या बहाना बता देता ।

इंसान के अन्दर सिर्फ दिल और दिमाग ही नहीं होता..!परमात्मा का प्रतिनिधित्व करती अंतरात्मा भी होती है.!!

उस आदमी की अंतरात्मा रह-रह कर उसे कचोटने लगी... अंदर से आवाज़ आ रही थी कि, तुम किसी की ग़लती से फ़ायदा उठाने से नहीं चूक रहे हो और ऊपर से बेईमान न होने का ढोंग भी कर रहे हो। क्या यही है तुम्हारी ईमानदारी.???

उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अचानक ही उसने बैग में से बीस हज़ार रुपए निकाले और जेब में डालकर बैंक की ओर चल पड़ा। उसकी बेचैनी और तनाव घटने लगा... वह स्वयं को हल्का और स्वस्थ अनुभव करने लगा । यद्यपि वह कोई बीमार नहीं था, तथापि उसे लग रहा था जैसे उसे किसी बीमारी से मुक्ति मिल गई हो। उसके चेहरे पर किसी युद्ध को जीतने जैसी प्रसन्नता व्याप्त थी।

अपने रुपए पाकर कैशियर ने चैन की सांस ली। उसने कस्टमर को अपनी जेब से हज़ार रुपए का एक नोट निकालकर उसे देते हुए कहा - ‘‘भाई साहब ! आपका बहुत-बहुत आभार । आज मेरी तरफ से बच्चों के लिए मिठाई ले जाना। प्लीज़ मना मत करना।”

‘‘भाई ! आभारी तो मैं हूँ आपका और आज मिठाई भी मैं ही आप सबको खिलाऊँगा ।’’ -  कस्टमर बोला।

कैशियर ने पूछा - ‘‘ भाई साहब ! आप किस बात का आभार प्रकट कर रहे हो और किस ख़ुशी में मिठाई खिला रहे हो ?’’

कस्टमर ने जवाब दिया -  "बीस हज़ार के चक्कर ने मुझे आत्म-मूल्यांकन का अवसर प्रदान किया। अगर आपसे ये ग़लती न होती तो, न तो मैं द्वंद्व में फँसता और न ही उससे निकल कर अपनी लोभवृत्ति पर क़ाबू पाता। यह बहुत मुश्किल काम था। घंटों के द्वंद्व के बाद ही मैं जीत पाया। इस दुर्लभ अवसर के लिए आपका आभार।”

● यह पोस्ट किसने लिखी मुझे ज्ञात नहीं है... मन को अच्छी लगी इसलिए अज्ञात लेखक के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए इसे शेयर कर रहा हूँ ।

ईमानदारी का नाटक करना और ईमानदार होना इसमें जमीन-आसमान का अंतर है । हमारी अंतरात्मा तो हमें हर कार्य के अच्छे-बुरे स्वरूप का दिग्दर्शन कराती है... लेकिन जरा से लालच मे हम उसकी अवहेलना कर बैठते है और जिंदगी भर आत्मग्लानि की अग्नि मे झुलसते रहते है ।

याद रखिये...
ईमानदारी के लिए कोई पुरस्कार नहीं होता... 
ईमानदारी अपने आप मे परमात्मा प्रदत्त पुरस्कार है।

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