⚜️बोधकथा - मन का संन्यास हो⚜️
एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं।
जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।
राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया।
राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।
विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई।
कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं।
उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं?
संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे।
संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी।
राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।
सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है।
अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं। अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।
ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई।
उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है।
उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी।
सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है।
आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।
कबीरजी कहते है
तन को जोगी सब करे
मन को बिरला कोय!!
हम शरीर को शृंगार कर संन्यासी जैसा बना तो देते है लेकीन हमारा मन प्रापंचिक सुख सुविधा मे आसक्त हैं यह तो संन्यास नही मन से विरक्त होना चाहीये फिर आप गृहस्थी मे रहे या जंगलमे!
हम शरीर को शृंगार कर संन्यासी जैसा बना तो देते है लेकीन हमारा मन प्रापंचिक सुख सुविधा मे आसक्त हैं यह तो संन्यास नही मन से विरक्त होना चाहीये फिर आप गृहस्थी मे रहे या जंगलमे!
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