Tuesday, 9 September 2025

प्रात: और संध्या काल में ही क्यों करें ईश्वर की उपासना...



प्रात: और संध्या काल में ही क्यों करें ईश्वर की उपासना...

हिंदू धर्म में शास्त्रों के अनुसार सुबह-शाम ईश्वर के सामने दीपक जलाकर पूजा करना बहुत ही पवित्र माना गया है। मान्यता है कि इससे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ता है और सुख-समृद्धि आती है। पूजा के साथ ही मंत्रों का जाप भी बड़ा लाभकारी है। हिन्दू धर्म में केवल सुबह ही नहीं शाम को भी पूजा किया जाता है। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मान्यता है कि शाम की पूजा के समय इन 4 मंत्रों का जाप करना आपके सुख-सौभाग्य और धन में वृद्धि करता है...

कब करें शाम को पूजा...

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शाम के समय शैतान शक्तियों का प्रभाव अधिक होता है। ऐसे में शाम के समय की गई पूजा से असुरी प्रभाव कम किया जा सकता है। वहीं, सुबह की पूजा भगवान को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। शाम को पूजन का सही समय सूर्यास्त होने के बाद और अंधेरा होने से पहले का होना चाहिए। ऐसा करने से भगवान आपके घर में वास करते हैं और माँ लक्ष्मी की कृपा आप पर बनी रहती है।

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तुते॥

इस मंत्र का अर्थ है - जो शुभ करती है, कल्याण करती है, स्वस्थ रखती है, धन-संपत्ति प्रदान करती है और शत्रु बुद्धि को नष्ट करती है, ऐसे दीप की लौ को मैं प्रणाम करता हूँ।

अन्तर्ज्योतिर्बहिर्ज्योतिः प्रत्यग्ज्योतिः परात्परः।
ज्योतिर्ज्योतिः स्वयंज्योतिरात्मज्योतिः शिवोऽस्म्यहम्॥

इस मंत्र का अर्थ है कि - जो दिव्‍य प्रकाश मेरे भीतर और मेरे बाहर है और जो प्रकाश संसार में फैला हुआ है उसका मालिक एक है। सभी प्रकाशपुंजों का स्रोत वो परमात्‍मा ही है, शिव है। मैं इस दीपक को प्रतिदिन जलाने की शपथ लेता हूँ।

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दन:।
दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तुते॥

इस मंत्र का अर्थ है कि शाम के वक्त जलने वाले दीपक की लौ उस परम ब्रह्म और सत्पुरुषों को समर्पित है और साथ ही भगवान विष्‍णु को समर्पित है। यह दीपक मेरे पाप को नष्ट करे, हे संध्या के दीपक मैं तुझे नमन करता हूँ।

कीटा: पतङ्गा: मशका: च वृक्षाः
जले स्थले ये निवसन्ति जीवाः
दृष्ट्वा प्रदीपं न च जन्म भाजा:
सुखिनः भवन्तु श्वपचाः हि विप्रा:।।

इस मंत्र का अर्थ है कि इस मंत्र के प्रज्वलन से हम यह प्रार्थना करते हैं कि इस दीप के दर्शन जिस जीव को भी हो रहे हों, चाहे वह कीट-पतंगे हों, पक्षी हो, पेड़-पौधे हों, इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीव हों या पानी में। मनुष्‍य हो या कोई भी अन्य जीव हो, उसके सभी पाप नष्ट हों तथा साथ ही उसे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाए। उस जीव को सदा सुख प्राप्त हो।

संध्यावंदन एवं उपचार...

हिन्दू धर्म में पूजा एवं संध्यावंदन का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिदिन संध्यावंदन करने से मनुष्य को इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है और साथ ही ये हमें शांति भी प्रदान करती है। हिन्दू धर्म में सन्ध्योपासना के ५ प्रकार बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं:
१. संध्या वंदन
२. प्रार्थना
3. ध्यान
4. कीर्तन
5. आरती

पूजा विधि में विभिन्न प्रकार की सामग्री इष्ट देवता को अर्पित की जाती है जिसे "उपचार" के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धर्म में पञ्च (५), दश (१०) एवं षोडश (१६) उपचार का वर्णन है। जैसा उपचार होता है उसी के अनुसार उतनी सामग्रियां देवताओं को अर्पण की जाती है। ये इस प्रकार हैं...

पञ्च उपचार...
१. गंध
२. पुष्प
3. धूप
4. दीप
5. नैवेद्य

दश उपचार...
१. पाद्य
२. अर्घ्य
3. आचमन
4. स्नान
5. वस्त्र
6. गंध
7. पुष्प
8. धूप
9. दीप
10. नैवेद्य

षोडश उपचार...
१. पाद्य
२. अर्घ्य
3. आचमन
4. स्नान
5. वस्त्र
6. आभूषण
7. गंध
8. पुष्प
9. धूप
10. दीप
११. नैवेद्य
१२. आचमन
13. ताम्बूल
14. स्तवपाठ
१५. तर्पण
१६. नमस्कार

त्रिकाल संध्या...

भारतीय संस्कृति में मंत्र, स्तुति, संध्यावंदन, प्रार्थना आदि का महत्त्व है। अधिकांश देवी- देवताओं के लिए हमारे यहाँ निश्चित प्रस्तुतियाँ हैं, भजन हैं, प्रार्थनाएँ हैं, आरतियाँ हैं। प्रार्थना मंत्र स्तुति आदि द्वारा देवताओं से भी बल, कीर्ति आदि विभूतियाँ प्राप्त होती हैं। ये सब कार्य हमारी अंतः शुद्धि के मनोवैज्ञानिक साधन हैं।

जैसे भिन्न- भिन्न मनुष्यों की भिन्न- भिन्न रुचियाँ होती हैं, वैसे ही हमारे पृथक−पृथक देवताओं की मन्त्र, आरतियाँ, पूजा प्रार्थना की विधियाँ भी पृथक−पृथक ही हैं। ये देवी- देवता हमारे भावों के ही मूर्त रूप हैं। जैसे हनुमान हमारी शारीरिक शक्ति के मूर्त स्वरूप हैं, शिव कल्याण के मूर्त रूप हैं, लक्ष्मी आर्थिक बल की मूर्त रूप हैं आदि। अपने उद्देश्य के अनुसार जिस देवी- देवता की स्तुति या आरती करते हैं, उसी प्रकार के भावों या विचारों का प्रादुर्भाव निरन्तर हमारे मन में होने लगता है। हम जिन शब्दों अथवा विचारों, नाम अथवा गुणों का पुनः- पुनः उच्चारण, ध्यान या निरन्तर चिंतन करते हैं, वे ही हमारी अन्तश्चेतना उच्चारण ही अपनी चेतना में इन्हें धारण करने का साधन है। मंत्र, प्रार्थना या वन्दन द्वारा उस दिव्य चेतना का आवाहन करके उसको मन, बुद्धि और शरीर में धारणा करते हैं। अतः ये वे उपाय हैं जिनसे सद्गुणों का विकास होता है और चित्त शुद्धि हो जाती है।

प्रत्येक देवता की जो स्तुति, मंत्र या प्रार्थना है, वह स्तरीय होकर आस- पास के वातावरण मे कम्पन करती है। उस भाव की आकृतियाँ समूचे वातावरण में फैल जाती हैं। हमारा मन और आत्मा उससे पूर्णतः सिक्त भी हो जाता है। हमारा मन उन कम्पनों से उस उच्च भाव- स्तर में पहुँचता है, जो उस देवता का भाव- स्तर है, जिसका हम मंत्र जपते हैं, या जिसकी अर्चना करते हैं, प्रार्थना द्वारा मन उस देवता के सम्पर्क में आता है। उन मंत्रों से जप बाहर- भीतर एक सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार मंत्र, जप, प्रार्थना, प्रस्तुतियाँ कम्पनात्मक शक्ति हैं।

प्रात: कालीन कार्य...

प्रातः काल उठते ही सर्वप्रथम क्या करना चाहिए इसके लिए हिंदू धर्म में बहुत कुछ बताया गया है । सबसे पहले अपने घर में सोने के स्थान पर भगवान का सुंदर सा फोटो लगाएं ताकि उठते ही सबसे पहले वहीं दिखाई दें। उठते ही हमारी आंखें नींद से भरी होती हैं। ऐसे में यदि दूर की वस्तु या रोशनी हमारी दृष्टि पर पड़ेगी तो आंखों पर कुप्रभाव पड़ेगा। इसलिए आवश्यक है कि उठते ही हम भगवान के चित्र का दर्शन करें। प्रातः दिखने वाली आकृति का दिन में प्रभाव अवश्य होता है।

भगवान का दर्शन करने के पूर्व प्रातःकाल जागते ही सबसे पहले दोनों हाथों की हथेलियों के दर्शन का विधान बताया गया है। आपका दिन शुभ और सफल हो इसके लिए हथेली और उसके बाद भगवान का दर्शन करें।

मंत्र पढ़ें...
हाथों की हथेली का दर्शन करके यह मंत्र पढ़ना चाहिए...
कराग्रे वसति लक्ष्मीः, कर मध्ये सरस्वती।
करमूले तू ब्राह्म, प्रभाते कर दर्शनम्‌‌।।…
(कहीं-कहीं ‘ब्रह्म’ के स्थान पर ‘गोविन्दः या ‘ब्रह्मां’ का प्रयोग किया जाता है।)

भावार्थ : हथेलियों के अग्रभाग में भगवती लक्ष्मी, मध्य भाग में विद्यादात्री सरस्वती और मूल भाग में भगवान गोविन्द (ब्रह्मा) का निवास है। मैं अपनी हथेलियों में इनका दर्शन करता हूँ।

यह मंत्र उच्चारित कर हथेलियों को परस्पर घर्षण करके उन्हें अपने चेहरे पर लगाना चाहिए।

हिन्दू मंदिर में जाने के नियम...

मंदिर समय...

हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदना की जाती है। वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल- उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा, आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या फिर अपराह्नकाल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं।धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए प्राचीन मंदिर सभी मंदिरों के द्वार उत्तर में होते थे। हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए।

मंदिर में शिखर होते हैं। शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं। व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है।

पुराने मंदिर सभी धरती के धनात्मक (पॉजीटिव) ऊर्जा के केंद्र हैं। ये मंदिर आकाशीय ऊर्जा के केंद्र में स्थित हैं। उदाहरणार्थ उज्जैन का महाकाल मंदिर कर्क पर स्थित है। ऐसे धनात्मक ऊर्जा के केंद्र पर जब व्यक्ति मंदिर में नंगे पैर जाता है तो इससे उसका शरीर अर्थ हो जाता है और उसमें एक ऊर्जा प्रवाह दौड़ने लगता है। वह व्यक्ति जब मूर्ति के जब हाथ जोड़ता है तो शरीर का ऊर्जा चक्र चलने लगता है। जब वह व्यक्ति सिर झुकाता है तो मूर्ति से परावर्तित होने वाली पृथ्वी और आकाशीय तरंगें मस्तक पर पड़ती हैं और मस्तिष्क पर मौजूद आज्ञा चक्र पर असर डालती हैं। इससे शांति मिलती है तथा सकारात्मक विचार आते हैं जिससे दुख-दर्द कम होते हैं और भविष्य उज्ज्वल होता है।

पूजा...

पूजा एक रासायनिक क्रिया है। इससे मंदिर के भीतर वातावरण की पीएच वैल्यू (तरल पदार्थ नापने की इकाई) कम हो जाती है जिससे व्यक्ति की पीएच वैल्यू पर असर पड़ता है। यह आयनिक क्रिया है, जो शारीरिक रसायन को बदल देती है। यह क्रिया बीमारियों को ठीक करने में सहायक होती है। दवाइयों से भी यही क्रिया कराई जाती है, जो मंदिर जाने से होती है।

प्रार्थना...

प्रार्थना में शक्ति होती है। प्रार्थना करने वाला व्यक्ति मंदिर के ईथर माध्यम से जुड़कर अपनी बात ईश्वर तक पहुंचा सकता है। दूसरा यह कि प्रार्थना करने से मन में विश्‍वास और सकारात्मक भाव जाग्रत होते हैं, जो जीवन के विकास और सफलता के अत्यंत आवश्यक हैं।

निषिद्ध आचरण...

शास्त्रों में जो मना किया गया है उसे करना पाप और कर्म को बिगाड़ने माना गया है। यहां प्रस्तुत हैं कुछ प्रमुख आचरण जिन्हें मंदिर में नहीं करना चाहिए अन्यथा आपकी प्रार्थना या पूजा निष्फल तो होती ही है, साथ ही आप देवताओं की दृष्टि में गिर जाते हो।

मंदिर में बिना आचमन क्रिया के नहीं जाना चाहिए। पवित्रता का विशेष ध्यान रखें। कई लोग मोजे पहनकर भी चले जाते हैं।
मंदिर में किसी भी प्रकार का वार्तालाप वर्जित माना गया है।
मंदिर में कभी भी मूर्ति के ठीक सामने खड़े नहीं होते।
दुर्गा और हनुमान मंदिर में सिर ढंककर जाते हैं।
मंदिर में जाने का समय- मंदिर में संध्यावंदन के समय जाते हैं। 12 से 4 के बीच कभी मंदिर नहीं जाते।
भजन-कीर्तन आदि के समय किसी भी भगवान का वेश बनाकर खुद की पूजा करवाना वर्जित।
इस तरह मंदिर के कई नियम हैं जिनका पालन करना चाहिए।

संध्योपासना के 5 प्रकार हैं...
(1) प्रार्थना
(2) ध्यान
(3) कीर्तन
(4) यज्ञ और
(5) पूजा-आरती

व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। लेकिन इन पांचों में किसका ज्यादा महत्व है, यह भी जानना आवश्यक है।

प्रार्थना का प्रचलन सभी धर्मों में है, लेकिन प्रार्थना करने के तरीके अलग-अलग हैं। तरीके कैसे भी हों जरूरी है प्रार्थना करना। प्रार्थना योग भी अपने आप में एक अलग ही योग है, लेकिन कुछ लोग इसे योग के तप और ईश्वर प्राणिधान का हिस्सा मानते हैं। प्रार्थना को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने की एक क्रिया भी माना जाता है।

कैसे करें प्रार्थना...

ईश्वर, भगवान, देवी-देवता या प्रकृति के समक्ष प्रार्थना करने से मन और तन को शांति मिलती है। मंदिर, घर या किसी एकांत स्थान पर खड़े होकर या फिर ध्यान मुद्रा में बैठकर दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में ले आएं। अब मन-मस्तिष्क को एकदम शांत और शरीर को पूर्णत: शिथिल कर लें और आंखें बद कर अपना संपूर्ण ध्यान अपने ईष्ट पर लगाएं। 15 मिनट तक एकदम शांत इसी मुद्रा में रहें तथा सांस की क्रिया सामान्य कर दें।

भक्ति के प्रकार...
आर्त,
जिज्ञासु,
अर्थार्थी और
ज्ञानी

प्रार्थना के प्रकार...
आत्मनिवेदन,
नामस्मरण,
वंदन और
संस्कृत भाषा में समूह गान।

प्रार्थना के लाभ...

प्रार्थना में मन से जो भी मांगा जाता है वह फलित होता है। ईश्वर प्रार्थना को ‘संध्या वंदन’ भी कहते हैं। संध्या वंदन ही प्रार्थना है। यह आरती, जप, पूजा या पाठ, तंत्र, मंत्र आदि क्रियाकांड से भिन्न और सर्वश्रेष्ठ है।

प्रार्थना से मन स्थिर और शांत रहता है। इससे क्रोध पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इससे स्मरण शक्ति और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। प्रतिदिन इसी तरह 15-20 मिनट प्रार्थना करने से व्यक्ति अपने आराध्य से जुड़ने लगता है और धीरे-धीरे उसके सारे संकट समाप्त होने लगते हैं। प्रार्थना से मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है तथा शरीर निरोगी बनता है।

अंत में ध्यान...

ध्यान का अर्थ...

ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसके क्षेत्र में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।

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